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कैसे बना ओपेक और फिर बिगड़ गया तेल का खेल

आशुतोष पाण्डेय
१५ सितम्बर २०२०

दुनिया के 13 तेल उत्पादक देशों का संगठन ओपेक 60 साल का हो रहा है. लेकिन महामारी के इस दौर में यह संगठन अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहा है. दुनिया भर में क्लीन एनर्जी की ओर बढ़ता रुझान इस ताकतवर संगठन के लिए खतरे की घंटी है.

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Symbolbild OPEC, Organisation Erdöl exportierender Länder
तस्वीर: picture-alliance/dpa/B. Gindl

1973 में सऊदी अरब, ईरान और इराक के नेतृत्व में चंद देशों ने महाशक्ति अमेरिका की अर्थव्यवस्था को ठप कर दिया था. ओपेक ने अमेरिका और उसके सहयोगियों को तेल देने से मना कर दिया. मध्य पूर्व से अमेरिका की तरफ से जाने वाले तेल के शिपमेंट रोक दिए गए और तेल के उत्पादन में भी कटौती कर दी गई.

इससे अमेरिका में हाहाकार मच गया. तेल की किल्लत हो गई और उसके दाम आसमान को छूने लगे. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अमेरिकियों ने योम किपुर की लड़ाई में इस्राएल का साथ दिया. 1973 की इस लड़ाई में एक तरफ इस्राएल और अमेरिका थे तो दूसरी तरफ मिस्र और सीरिया के नेतृत्व में अरब देश.

कई महीनों की वार्ता के बाद प्रतिबंध हटाया गया, लेकिन तब तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था दूसरे विश्व युद्ध के बाद अपनी सबसे बुरी मंदी के दौर में जा चुकी थी. इस घटना ने द ऑर्गेनाइजेशन ऑफ पेट्रोलियम एक्सपोर्टिंग कंट्रीज (ओपेक) को एक बड़ी ताकत बना दिया. जो संगठन अब तक सिर्फ सदस्यों को बड़ी तेल कंपनियों से ऊंचे दाम दिलाने के लिए मुख्य तौर पर वार्ता करता था, उसका कद और प्रभाव एकदम से बढ़ गया था.

ओपेक की मुश्किलें

इस घटना के पांच दशक बाद आज ओपेक के पास सिर्फ गौरवशाली इतिहास के सिवा कुछ नहीं है, क्योंकि भविष्य तो इतना अच्छा नहीं लग रहा है. एक तरफ ओपेक सदस्य देशों की खींचतान से परेशान है तो दूसरी तरफ अमेरिका बड़े तेल उत्पादक के तौर पर उभर रहा है. इसके अलावा दुनिया भर में अक्षय और स्वच्छ ऊर्जा संसाधनों की तरफ जाने की होड़ भी ओपेक की चिंताओं को बढ़ा रही है.

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जेफ कोलगान अमेरिका की ब्राउन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं और उन्होंने "पेट्रो एग्रेशन: व्हेन ऑइल कॉजेज वार" नाम की किताब भी लिखी है. वह कहते हैं, "ओपेक की अहमियत बुनियादी रूप से एक राजनीतिक क्लब के तौर पर रही है. वह एक उत्पादक संघ के तौर पर आर्थिक रूप से नाकाम रहा है. लेकिन वह अपने सदस्यों की प्रतिष्ठा और उनके रुतबे को जरूर बढ़ाता है, जिनमें से ज्यादातर अपने दम पर वैश्विक मामलों में कोई भूमिका नहीं निभा सकते." वह कहते हैं कि किसी उत्पादक संगठन को उत्पादन की एक सीमा तय करनी चाहिए और उस पर कायम भी रहना चाहिए जबकि ओपेक आसान लक्ष्य तय करता है, फिर भी उन्हें हासिल करने में भी अकसर नाकाम हो जाता है.

हाल के सालों में ओपेक की बाजार हिस्सेदारी लगातार घटी है. इसकी एक वजह अपने उत्पादन को रोककर तेल के दामों को कृत्रिम रूप से बढ़ाने की कोशिश भी है. 1973 में ओपेक की बाजार हिस्सेदारी 50 प्रतिशत हुआ करती थी जो अब 30 प्रतिशत पर आ पहुंची है. लीबिया में युद्ध और ईरान और वेनेजुएला जैसे देशों पर अमेरिका के प्रतिबंध भी उसे भारी पड़े हैं.

ऊर्जा सेक्टर में तेल की अहमियत भी घट रही है. तेल कंपनी बीपी के अनुमान के मुताबिक 1973 में 50 प्रतिशत हिस्सेदारी के मुकाबले अब यह आंकड़ा घटकर 33 प्रतिशत पर आ गया है. दुनिया की बहुत सी सरकारें और कंपनियां जलवायु परिवर्तन के खतरों को देखते हुए अब स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों की तरफ जा रही हैं. मुख्य रूप से सूरज और हवा से मिलने वाली अक्षय ऊर्जा की मांग लगातार बढ़ रही है. बीपी के आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल वैश्विक ऊर्जा वृद्धि में अक्षय ऊर्जा स्रोतों का योगदान 40 प्रतिशत से ज्यादा रहा.

तेल सोखने वाली रुई

ग्लोबल इंफ्रास्ट्रक्चर एडवाइजरी सर्विस 2050 नाम की कंसल्टेंसी से जुड़े फिलिपे बेनो कहते हैं, "तेल की अहमियत अब वैसी नहीं रही जैसी कभी हुआ करती थी. मिसाल के तौर पर क्या आपको पता है कि एक्सॉन का मुखिया कौन है? शायद नहीं. क्या आप जानते हैं कि टेस्ला का मुखिया कौन है? हां, इलोन मस्क."

कोरोना महामारी ने तेल सेक्टर के लिए और मुसीबतें पैदा की हैं. दुनिया भर में लॉकडाउन की वजह से कारें, विमान और ट्रेनें एकदम थम गईं. इससे तेल की खपत में सीधे एक चौथाई कमी दर्ज की गई और तेल के दाम धड़ाम नीचे आ गिरे. एक समय तो ऐसा भी आया जब अमेरिका में प्रति बैरल दाम शून्य डॉलर से नीचे चले गए. तेल की वैश्विक मांग का एक तिहाई हिस्सा यातायात और परिवहन से ही आता है.

विशेषज्ञों को उम्मीद नहीं है कि कार और विमानन उद्योग अगले कम से कम तीन से पांच साल में महामारी से पहले वाले अपने स्तर पर वापस आएगा. विमानन उद्योग को तेल उद्योग के लिए सबसे बड़ा ग्रोथ इंजन कहा जाता था, जिसे लोगों की बढ़ती समृद्धि का सीधा फायदा मिलता है. लेकिन अब अगले पांच साल बहुत मुश्किल दिखाई दे रहे हैं.

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ओपेक का इतिहास

सितंबर 1960 में ईरान, इराक, कुवैत, सऊदी अरब और वेजेजुएला ने बगदाद में ओपेक की स्थापना की थी. बाद के सालों में इसका आकार बढ़ता घटता रहा, लेकिन यह हमेशा ही रणनीति से जुड़े विवादों और क्षेत्रीय सत्ता संघर्षों में घिरा रहा. कई बार तो इसने संकट का रूप भी ले लिया. जैसे कि ईरान-इराक युद्ध और 1990 में कुवैत पर इराक का हमला.

ओपेक के कुल तेल उत्पादन में एक तिहाई हिस्सेदारी सऊदी अरब की है. 1990 के दशक से वही उस संगठन का नेता बना रहा है. सऊदी अरब कई बार एकतरफा तौर पर कच्चे तेल के दाम बढ़ाने और अपनी बाजार हिस्सेदारी को बचाने के बीच झूलता रहता है. कोलगान कहते हैं, "ओपेक सऊदी अरब का मुखपत्र है." मार्च में जब ओपेक देश और उनके सहयोगियों ने जब उत्पादन घटाने का फैसला किया तो सऊदी अरब ने रूस के साथ प्राइस वॉर छेड़ दिया. इससे नाइजीरिया और अंगोला जैसे कमजोर सदस्य नाराज हो गए, जो 2015-16 में सऊदी अरब के कदमों के चलते तेल के घटे दामों की वजह से पहले ही परेशान थे.

वैसे बीते 60 साल में ओपेक ने कई संकटों का सामना किया है. इसलिए इसके खत्म होने की भविष्यवाणी करना थोड़ी जल्दबाजी होगी. अभी बहुत सालों तक दुनिया का गुजारा तेल के बिना होने वाला नहीं है. बेनो कहते हैं कि ओपेक बहुत से उत्पादक देशों का समूह है, ऐसे में वह सिकुड़ते बाजार में तेल उत्पादकों के बीच होने वाले तनावों को दूर करने में अहम भूमिका निभा सकता है.

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