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पीएम मोदी का दौरा भारत जर्मन रिश्तों को रीबूट करने का मौका

१ मई २०२२

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बर्लिन में हैं. वही शहर, वही होटल, कमरे की खिड़कियों से दिखता वही पूरब पश्चिम विभाजन का प्रतीक ब्रांडेनबुर्ग गेट. लेकिन इस बार प्राथमिकताएं अलग हैं, मोदी के सामने चुनौतियां अलग हैं.

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अंगेला मैर्केल और नरेंद्र मोदी 2015 की फाइल फोटो में तस्वीर: AFP/Getty Images/T. Schwarz

भारत का प्रधानमंत्री बनने के बाद नरेंद्र मोदी पहली बार 2014 में जर्मनी आए थे. उस समय वह नए थे और जर्मनी की चांसलर अंगेला मैर्केल विश्व मंच पर स्थापित राजनेता. पारस्परिक संबंधों के हिसाब से जर्मनी भारत का महत्वपूर्ण साझेदार है, इस लिहाज से यह यात्रा महत्वपूर्ण थी. भारतीय प्रधानमंत्री को ब्राजील भी जाना था और वह वहां जाते हुए इस बार फ्रैंकफर्ट के बदले बर्लिन में रुके ताकि जर्मन चांसलर से मिल सकें. इस दौरे पर अंगेला मैर्केल से नरेंद्र मोदी की मुलाकात नहीं हुई, लेकिन ब्रांडेनबुर्ग गेट ने उन्हें पूरब और पश्चिम के बंटवारे का अहसास जरूर कराया. कभी जो दीवार पूर्वी और पश्चिमी यूरोप को अलग करती थी, उसके नीचे से पैदल गुजरना प्रधानमंत्री के लिए एक नई आजाद दुनिया का अहसास था. वह भारत को भी इसका हिस्सा बनाना चाहते थे.

ब्राजील में हो रहे फुटबॉल विश्वकप ने प्रधानमंत्री की यात्रा की तैयारी करने वाले अधिकारियों की मंशा और लक्ष्यों पर पानी फेर दिया था. इस यात्रा पर जिस दिन मोदी बर्लिन पहुंचे, उसके एक दिन पहले चांसलर मैर्केल ब्राजील के लिए निकल गईं, जहां उनके देश की टीम मेजबान ब्राजील की टीम को हराकर विश्वकप के फाइनल में पहुंच गई थी. जर्मनी का मुकाबला लैटिन अमेरिका के ही अर्जेंटीना की टीम से था, जो फुटबॉल के देवता मैरादोना की वजह से जाना जाता है. फुटबॉल की जगह जर्मनी में लगभग वही है जो भारत में क्रिकेट की है. आम राजनीतिज्ञ भले ही फुटबॉल की राजनीति से दूर रहते हों, लेकिन संसद और विधानसभा हो या स्थानीय निकाय, किसी भी चुनाव क्षेत्र की राजनीति की कल्पना फुटबॉल राजनीति के बिना नहीं की जा सकती. फिर चांसलर राष्ट्रीय टीम के गौरव में भागीदार होने की कोशिश क्यों न करतीं?

Coronavirus - Hotel Adlon öffnet wieder
होटल के एक कमरे की खिड़की से दिखता ब्रांडेनबुर्ग गेट, इधर पूरब उधर पश्चिमतस्वीर: Carsten Koall/dpa/picture alliance

तो नरेंद्र मोदी बर्लिन में थे और बर्लिन में रहने वाली अंगेला मैर्केल ब्राजील में. और जब तक मोदी ब्राजील पहुंचते, मैर्केल वापस बर्लिन में. इस दौरे की तैयारियों ने यह भी दिखाया कि भारतीय अधिकारी विदेशी संवेदनाओं पर कितना कम ध्यान देते हैं. ब्राजील के राष्ट्रपति ने भारतीय प्रधानमंत्री को भी फाइनल मैच देखने के लिए न्यौता भी दिया था, लेकिन वहां डिल्मा रूशेफ के अलावा मैर्केल और ब्लादिमीर पुतिन भी मौजूद थे, लेकिन मोदी नहीं पहुंच पाए. फुटबॉल की दुनिया के महत्वपूर्ण देशों के लिए फाइनल तक पहुंचना बड़े सम्मान की बात होती है. हालांकि ब्राजील सेमी फाइनल में जर्मनी से बुरी तरह हार गया लेकिन उम्मीदें तो जीत की ही थीं. नरेंद्र मोदी ने विश्व कप के बाद हुई ब्रिक्स देशों की बैठक में भाग लिया, जो साझा हितों के अभाव में और भारत चीन विवादों के बाद बस एक क्लब जैसा होकर रह गया है.

Indien PM Narendra Modi bei G20 in Rom
अक्टूबर 2021 में पीएम मोदी और शॉल्त्स (तब वित्त मंत्री) रोम में जी20 की बैठक मेंतस्वीर: Celestino A. Lavin/Zuma/picture alliance

जर्मनी के साथ दोस्ती बढ़ाने की कोशिश

शुरुआत भले ही मनचाही न रही हो, लेकिन अंगेला मैर्केल ने मनमोहन सिंह के दिनों में बने संबंधों को नरेंद्र मोदी के साथ भी जोड़ने की कोशिश की. मोदी अगले साल फिर जर्मनी आए. हनोवर के मशहूर व्यापार मेले में भारत सहयोगी देश था. बड़े पैमाने पर भारत की आर्थिक संभावनाओं को पेश किया गया और सहयोग की नई संभावनाएं तलाशी गईं. प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के लिए दोनों ही देशों के कारोबारियों और अधिकारियों में जबरदस्त उत्साह दिखा. आखिर दोनों देशों को एक दूसरे की जरूरत भी है, वे एक दूसरे के पूरक भी हैं. जर्मनी को जिन चीजों की जरूरत है, वह भारत दे सकता है और भारत को अपने तेज विकास के लिए जो चाहिए, वह जर्मनी दे सकता है. हालांकि संभावनाओं को कागज़ से जमीन पर उतारने में दोनों देश अब तक बहुत सफल नहीं रहे हैं.

पिछले सालों में भारतीय और जर्मन नेताओं की मुलाकातें कम ही हुई हैं. उसकी वजह एक ओर दोनों देशों के व्यापार में कमी रही है, तो दूसरी ओर मुलाकातें न होने के कारण उन्हें जिस तरह से बढ़ाया जा सकता था, वह तेजी नहीं आ पायी. हालांकि पिछले सालों की मंदी के बाद 2021 में व्यापार में कुछ तेजी आई और जर्मनी का भारत को निर्यात 14.7 अरब डॉलर रहा तो भारत से आयात 12.9 अरब डॉलर. इसके साथ भारत के व्यापारिक सहयोगियों में जर्मनी का छठा स्थान है जबकि भारत निर्यात के मामले में जर्मनी का 23वां और आयात के मामले में 26 वें स्थान पर है. 2000 से 2020 तक भारत में निवेश के मामले में जर्मनी 13.5 अरब डॉलर के साथ सातवें स्थान पर है. जर्मनी में निवेश करने वाले देशों में भारत 29वें स्थान पर है.

कोरोना काल ने दिखाई संबंधों की सीमाएं

कोरोना महामारी ने जर्मनी और भारत के संबंधों की सीमाएं दिखाईं. जब अचानक महामारी के कारण सब कुछ ठप्प पड़ गया और जर्मनी तथा यूरोप की जरूरतों को पूरा करने का वक्त आया तो भारत पिछली कतार में खड़ा था और अपनी ही समस्याओं से जूझ रहा था. चाहे मास्क हो या कोरोना टेस्टिंग किट या खाने पीने के सामान, चीन के उद्यम यूरोपीय देशों की जरूरत पूरा कर रहे थे, भारत के पास उत्पादन संयंत्रों की कमी थी और उद्योग में काम करने वाले मजदूरों की हालत इतनी खराब थी कि वे खुद शहर छोड़कर गांवों की ओर भाग रहे थे, जबकि सरकारें लाचार दिख रही थीं.

Deutschland G20 Gipfel
2017 में जी 20 शिखर सम्मेलन में मोदी और माक्रों के साथ मैर्केल तस्वीर: Reuters/P. Wojazer

भारत में सब कुछ होने के बावजूद निर्यात अर्थव्यवस्था की एक स्थिर संरचना का अभाव खुलकर सामने आ गया. चीन ने पश्चिमी देशों की निर्भरता को भुनाना भी शुरू कर दिया है और खासकर इंडो प्रशांत क्षेत्र में धौंस जमा रहा है. जर्मन और यूरोपीय उद्यम अपना कारोबार चीन से बाहर निकालना चाहते हैं, लेकिन उन्हें भारत में उसके लिए उचित माहौल नहीं मिल रहा है. यूरोपीय बाजारों में पैठ बनाने के लिए भारत को जो तैयारी करनी चाहिए, वह दिखती नहीं है. इसलिए यहां के बाजार में मिलने वाले आम, लीची, नींबू, अदरक, प्याज और लहसुन जैसी मामूली चीजें भी भारत से नहीं आ रही हैं, चीन, ब्राजील, मेक्सिको, पेरू और केन्या जैसे देशों से आ रही है. सहयोग निर्भरताएं पैदा करता है, लेकिन विकास और खुशहाली की संभावनाएं भी देता है.

चीन के बाद भारत पर निर्भर होने का डर

पिछले सालों के आर्थिक विकास ने दुनिया के देशों की एक दूसरे पर निर्भरता बढ़ा दी है. दूसरी ओर डॉनल्ड ट्रंप के अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था ने अपने हितों पर ध्यान देना शुरू किया और अब तो सभी आपसी भरोसा छोड़ कर अपने अपने हितों के बारे में सोचने लगे हैं. लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के कारण चीन छोड़ने वाले कारोबारियों का भारत जाना स्वाभाविक लगता है, लेकिन भारत की बढ़ती आर्थिक ताकत को देखते हुए बहुत से लोग ये सवाल पूछने लगे हैं कि क्या कल को भारत भी तो चीन की तरह बर्ताव नहीं करने लगेगा.

यूरोप दौरे पर क्या यूक्रेन के लिए मोदी पर दबाव बनाएगा यूरोपीय संघ

यूक्रेन पर रूस के हमले ने इन आशंकाओं को और बढ़ाया है. सात दशकों से ज्यादा से शांति में जी रहे यूरोपीय लोगों का युद्ध की विभीषिका से पहली बार इतनी नजदीकी से सामना हो रहा है. रूस पर तेल और गैस की निर्भरता को खत्म करने की मांग हो रही है, चीजों की कीमतें बढ़ रही है, कमाई और खर्च का सारा संतुलन गड़बड़ा रहा है. और जोर से मूल्यों की बात हो रही है, मूल्य आधारित सहबंधों की बात हो रही है और समान सोच वाले साथियों की जरूरत महसूस हो रही है. यूरोपीय संघ के साथ जून में मुक्त व्यापार समझौते पर होने वाली बातचीत यूरोप के साथ संबंधों को तेज करने का अवसर होगी.

भारत के सामने नई चुनौतियां

यूक्रेन युद्ध ने भारत के लिए भी मुश्किलें पैदा कर दी है. एक ओर पश्चिमी लोकतांत्रिक देश भारत पर रूस पर प्रतिबंधों में शामिल होने के लिए दबाव बना रहे हैं. तो दूसरी ओर भारत रूसी हमले को गलत मानते हुए भी सामरिक निर्भरता के कारण उसका साथ नहीं छोड़ पा रहा है. रक्षा जरूरतों के लिए वह रूस पर निर्भर है तो लोकतांत्रिक आर्थिक विकास के लिए पश्चिम के लोकतांत्रिक देशों पर. उस पर चुनाव करने का दबाव है. शीत युद्ध की समाप्ति के बाद के वर्षों में गुट निरपेक्ष आंदोलन कमजोर होता गया है और आंदोलन के संस्थापकों में शामिल भारत ने ऐसा होने दिया है. अब वह अकेला दिख रहा है. और उसे यूरोप की जरूरत है.

Deutschland Meseberg - Angela Merkel trifft auf Premierminister Modi
बर्लिन के निकट मेजेबर्ग गेस्टहाउस में मोदी और मैर्केलतस्वीर: Reuters/F. Bensch

भारत का आज का फैसला उसके कल की नींव रखेगा. यह नींव एक लोकतांत्रिक और समावेशी समाज वाली नींव होगी. बहुध्रुवीय विश्व में यूरोप भारत के लिए महत्वपूर्ण स्थान रखता है. प्रधानमंत्री मोदी यूरोप में अलग अलग अंतरराष्ट्रीय गुटों के साथ संवाद बढ़ा कर भारतीय विदेश नीति में यूरोप को महत्व दे रहे हैं. इन संबंधों का पूरा फायदा उठाने के लिए भारत में सामाजिक सहिष्णुता जरूरी है. अल्पसंख्यकों के खिलाफ बना माहौल भारत की छवि और उसकी संभावनाओं को नुकसान पहुंचा रहा है. विश्व के अगुआ देशों की भारत से अंतरराष्ट्रीय मंच पर नेतृत्व की अपेक्षा है. देश में तेज आर्थिक प्रगति के साथ सामाजिक समरसता भारत की स्वीकार्यता बढ़ाएगा. पश्चिमी समाजों में फैसले अब सिर्फ सरकारें नहीं करती, बल्कि सामाजिक तबके भी अहम भूमिका निभाने लगे हैं. सांप्रदायिक असहिष्णुता और आक्रामकता का संदेश आर्थिक सहयोग की संभावनाओं को मुश्किल बना सकता है.

विकास के लिए सामाजिक समरसता जरूरी

प्रधानमंत्री मोदी के सामने दो प्रमुख चुनौतियां हैं. एक तो समाज में जो बिखराव पैदा हुआ है, उसे बढ़ने से रोकना. वे एक ताकतवर नेता हैं और उनसे इस मामले में भी नेतृत्व की उम्मीद की जा रही है. अंतरराष्ट्रीय मंच पर नेतृत्व की भूमिका के लिए राष्ट्रीय हितों का ख्याल रखने के अलावा सामूहिक हितों पर ध्यान देने की जरूरत होगी. अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं इन सामूहिक हितों का ख्याल रख कर ही प्रासंगिक रह सकती हैं. भारत ने विकासशील देशों को हमेशा राह दिखाई है. उनकी भी अपेक्षाएं हैं. इन अपेक्षाओं को पूरा करने में कम से कम बहुत से यूरोपीय देश भारत के साथ होंगे. और ये बात जर्मनी के साथ संबंधों की रीढ़ बन सकती है. हरित ऊर्जा के क्षेत्र में भी भारत और जर्मनी के पारस्परिक सहयोग के अनुभव अफ्रीका में साझा पहलकदमियों का आधार बन सकते हैं.

Indien Angela Merkel & Narendra Modi
मेक इन इंडिया की पहल को तेजी देने का मौकातस्वीर: Getty Images/AFP/M. Kiran

इस बार जब नरेंद्र मोदी जर्मनी आए हैं तो एक अनुभवी प्रधानमंत्री जर्मनी के नए चांसलर ओलाफ शॉल्त्स से मिल रहा है. दोनों की रोम में जी20 के शिखर भेंट के दौरान मुलाकात हो चुकी है. जर्मनी में चुनाव हो चुके थे और शॉल्त्स का चांसलर बनना भी तय हो चुका था.  आज की मुलाकात में संबंधों को बेहतर बनाने की दोनों देशों की कल्पनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए यदि ठोस फैसले लिए जाएं तो सालों से लुढ़क रहे संबंधों को तेज गति दी जा सकती है. जर्मनी के लघु और मझौले उद्योग न सिर्फ रोजगार के हिसाब से अहम हैं बल्कि उत्पादन के हिसाब से भी. भारत के एसएमई सेक्टर के साथ घनिष्ट सहयोग दोनों को लाभ पहुंचाएगा. इसी तरह जर्मनी की दोहरी शिक्षा प्रणाली व्यावसायिक प्रशिक्षण के कारण उद्योग को लगातार कुशल कामगार मुहैया करा रही है. भारत अपने यहां कामगारों को नौकरी लायक बनाने के लिए इस अनुभव का इस्तेमाल कर रहा है. और आबादी की समस्या से जूझता जर्मनी भारत के सहयोग से उद्योग में कुशल कामगारों की कमी पूरी कर सकेगा. प्रधानमंत्री मोदी की ये यात्रा भारत जर्मन संबंधों का रिसेट साबित हो सकती है. जरूरी है एक दूसरे को समझने की और धीरे धीरे और करीब आने की.

व्यावसायिक प्रशिक्षण में भारत जर्मन सहयोग 

भारत को ट्रेनिंग देता जर्मनी

DW Mitarbeiterportrait | Mahesh Jha
महेश झा सीनियर एडिटर