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समाजनेपाल

पैसों की कमी से नेपाल में मीडिया की हालत खस्ता

लेखनाथ पांडे
१ मार्च २०२४

आर्थिक तंगी के चलते नेपाल में मीडिया की हालत खराब है. बड़ी संख्या में पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया गया है. कई पत्रकार दूसरे क्षेत्रों में करियर बनाने को मजबूर हो रहे हैं. मीडिया की भूमिका पर भी खतरा मंडरा रहा है.

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वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे पर काठमांडू में रैली निकालते नेपाल के पत्रकार
नेपाल के आर्थिक संकट ने कई पत्रकारों को अपना पेशा बदलने के लिए मजबूर किया है. तस्वीर: Narendra Shrestha/Epa/dpa/picture-alliance

मीडिया में करीब तीन दशक का अनुभव रखने वाले पत्रकार भूपराज खड़का ने हाल ही में नेपाल की राजधानी काठमांडू के भक्तपुर इलाके में एक खुदरा दुकान खोली है.

खड़का पिछले छह साल से करंट अफेयर्स न्यूज पोर्टल चला रहे थे, लेकिन अब विज्ञापन से उन्हें इतना कम पैसा मिल रहा है कि वे अपने साथ काम कर रहे दो अन्य साथी पत्रकारों को भी उनका पारिश्रमिक नहीं दे पा रहे हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में वह कहते हैं, "मुझे पत्रकारिता में कोई भविष्य नहीं दिख रहा था. गुजारा करने के लिए मैंने एक खुदरा दुकान खोल ली है.”

पत्रकारिता बेहतर करियर नहीं रह गया है

दरअसल, खड़का की स्थिति नेपाली पत्रकारिता के व्यापक रुझान को दर्शाती है. 'फेडरेशन ऑफ नेपाली जर्नलिस्ट्स' (एफएनजे) नेपाल में पत्रकारों का एक बड़ा संगठन है. इसने साल 2021 में बताया था कि देश भर में 10 फीसद से ज्यादा पत्रकारों को कोरोना महामारी के कुछ महीनों के भीतर ही छंटनी, कम भुगतान या देर से भुगतान जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ा था.

हालांकि, इस मुद्दे पर कोई व्यापक अध्ययन नहीं हुआ है कि कितने पत्रकारों को नौकरी से हटा दिया गया या फिर कितने पत्रकारों ने विवश होकर अपना पेशा छोड़ दिया. मीडिया अधिकारों के लिए काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन 'फ्रीडम फोरम नेपाल' (एफएनजे) के अध्यक्ष तारा नाथ दहल बताते हैं कि कोविड संक्रमण के बाद इस पेशे में दोबारा शामिल होने की बजाय तमाम लोगों ने पत्रकारिता से ही तौबा कर ली.

एफएनजे की उपाध्यक्ष बाला अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया कि देश भर में करीब ढाई हजार पत्रकार गलत तरीके से हुई छंटनी या पारिश्रमिक न मिलने जैसे विभिन्न श्रम अधिकारों के उल्लंघन का सामना कर रहे हैं. वह कहती हैं, "उनमें से करीब 1,000 लोगों ने अपने मुद्दों को सुलझाने में मदद के लिए एफएनजे से संपर्क किया है.”

मीडिया क्षेत्र में आए इस संकट ने कई पत्रकारों को अपना पेशा बदलने के लिए प्रेरित किया है. एफएनजे ने अपनी हालिया रिपोर्ट में बताया है कि पत्रकारों ने अपनी वित्तीय जरूरतें पूरी करने के लिए शिक्षण, व्यवसाय और गैर-सरकारी संगठनों में काम करना शुरू कर दिया है. कुछ ने तो विदेशों में काम करने का भी विकल्प चुना है. कई लोगों को खाड़ी देशों या ऑस्ट्रेलिया में रोजगार मिला है. बाला अधिकारी का अनुमान है कि एफएनजे की सदस्यता में भी गिरावट देखी गई है, जो घटकर आधी हो गई है.

नेपाल में पत्रकारिता का उत्थान और पतन

साल 1990 में नेपाल में लोकतांत्रिक परिवर्तन के बाद जब एक नए संविधान के जरिए मीडिया उद्योग में उदारीकरण को बढ़ावा मिला, तो नेपाल में मीडिया खूब फला-फूला.

एक समय यह अपने चरम पर था और उस वक्त नेपाल में सात हजार से ज्यादा पंजीकृत प्रिंट मीडिया आउटलेट थे. आज स्थिति यह है कि सिर्फ 730 दैनिक समाचार पत्रों समेत 4,859 टाइटल ही पंजीकृत हैं. हालांकि, जुलाई 2023 के मध्य तक सभी समाचार पत्रों में से केवल 928 ही ऐसे थे, जो नियमित अंतराल पर प्रकाशित हो रहे थे. इनमें दैनिक समाचार पत्रों की संख्या सिर्फ 191 थी.

दहल कहते हैं कि कोविड के बाद से नेपाल के आधे से ज्यादा एफएम रेडियो स्टेशन और टीवी नेटवर्क बंद हो गए हैं, जबकि बाकी ने या तो अपने कर्मचारियों की संख्या में बहुत ज्यादा कटौती कर दी है या फिर अपनी संपादकीय सामग्री कम कर दी है.

सरकारी स्वामित्व वाले अखबारों को छोड़कर प्रमुख अखबारों ने पन्ने घटा दिए हैं, कर्मचारियों की छंटनी कर दी है और अपने प्रमुख संस्करणों के अलावा क्षेत्रीय संस्करण बंद कर दिए हैं. अग्रणी नेपाली मीडिया हाउस 'कांतिपुर मीडिया ग्रुप' (केएमजी) के यहां करीब 1,200 लोग काम करते थे. ग्रुप ने इनमें से करीब एक तिहाई नौकरियों में कटौती कर दी है. इस कटौती के शिकार लोगों में करीब 100 पत्रकार भी शामिल हैं, जिन्हें कथित तौर पर नौकरी से निकाल दिया गया है या उन लोगों को विवश होकर नौकरी छोड़नी पड़ी है.

केएमजी के एक प्रतिनिधि ने बताया कि कंपनी ने आगे भी छंटनी की योजना बनाई है क्योंकि उसे आमदनी में भारी गिरावट का सामना करना पड़ रहा है. कांतिपुर डेली, केएमजी ग्रुप का प्रमुख अखबार है. पहले इसमें 24 से 32 पन्ने छपते थे, लेकिन अब यह घटकर सिर्फ आठ पेज का अखबार रह गया है.

न वेतन, न भत्ता, न ही कोई अन्य लाभ

सामाजिक कार्यकर्ता जन्मदेव जैसी कहते हैं कि देश के प्रत्येक मीडिया हाउस को संसाधनों की कथित कमी के कारण भुगतान रोकना पड़ रहा है. या फिर, प्रबंधन को अवैध तरीके से छंटनी का फैसला करना पड़ रहा है. इन वजहों से कंपनियों को कर्मचारियों के अधिकारों का उल्लंघन करने के आरोपों का सामना करना पड़ रहा है.

जन्मदेव जैसी कहते हैं, "मीडिया हाउस यथासंभव कम कर्मचारियों के साथ काम करना चाहते हैं, जबकि बुनियादी वेतन, भत्ते, लाभ और समय पर भुगतान सुनिश्चित नहीं करते हैं.”

मीडिया के मुद्दों पर केंद्रित एक लोकप्रिय ब्लॉग मीडिया कुराकानी के संस्थापक रबी राज बराल कहते हैं कि समाचार माध्यम डिजिटल संक्रमण से जूझ रहे हैं. साथ ही, उनमें इस संकट के प्रबंधन का हुनर भी नहीं है. बराल बताते हैं, "मीडिया क्षेत्र ने बड़े पैमाने पर कर्मचारियों की छंटनी, सामग्री में कटौती और संचालन बंद करके आसान रास्ता चुना है.”

वहीं दूसरी ओर, विज्ञापन फंड अखबारों से दूर होकर मेटा और गूगल जैसे तकनीकी दिग्गजों की ओर जा रहे हैं. एडवरटाइजिंग एसोसिएशन ऑफ नेपाल (एएएन) के मुताबिक, कोविड से पहले नेपाल के विज्ञापन बाजार का अनुमानित मूल्य करीब 12-13 अरब नेपाली रुपये था. इसमें सरकारी विज्ञापनों का हिस्सा लगभग एक चौथाई था. हालांकि अधिकांश सरकारी विज्ञापन राज्य के स्वामित्व वाले मीडिया को ही जाते हैं.

प्रिज्मा एडवरटाइजिंग एजेंसी के संचालक रंजीत अहकार्या कहते हैं कि उनकी अपनी कंपनी में समाचार मीडिया के लिए वार्षिक विज्ञापन राजस्व में 70-75 फीसद की गिरावट आई है. कोविड के बाद से लड़खड़ाई नेपाल की अर्थव्यव्यस्था पहले से ही सुधरने के लिए संघर्ष कर रही है, लेकिन नेपाल के खराब आर्थिक दृष्टिकोण की वजह से यह स्थिति और भी बदतर होती गई है.

एएनएन के सदस्य आचार्य कहते हैं, "हमारे पास नेपाली समाचार मीडिया बनाम डिजिटल स्पेस को आवंटित विज्ञापन राजस्व की मात्रा का आधिकारिक डेटा नहीं है, क्योंकि डिजिटल स्पेस अक्सर अनौपचारिक या अवैध रूप से होता है.”

आचार्य कहते हैं कि कोविड के बाद की आर्थिक मंदी ने टीवी विज्ञापन को कम आकर्षक बना दिया है. इसका नतीजा यह हुआ है कि राजस्व, डिजिटल प्लेटफॉर्म्स की ओर चले गए. इनकी पहुंच अपेक्षाकृत ज्यादा दर्शकों तक होती है और उन पर लागत भी कम आती है.

भारत का मीडिया किस हाल में है

अब जनता का प्रहरी कौन होगा?

नेपाल के मीडिया परिदृश्य के मौजूदा संकट को नेपाल में संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रवक्ता नेत्र प्रसाद सुबेदी भी स्वीकार करते हैं. हालांकि, उनका कहना है कि सरकार के पास मीडिया को आर्थिक रूप से बचाने के लिए कोई नीति या संसाधन नहीं है. इसकी जगह, मंत्रालय बाजार की ताकतों को खुद ही इससे निपटने के लिए छोड़ देता है.

यह संकट न केवल पत्रकारों की आजीविका के लिए खतरा है, बल्कि एक सार्वजनिक प्रहरी के रूप में मीडिया की भूमिका को भी कमजोर करता है. नेपाल के त्रिभुवन विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के एसोसिएट प्रोफेसर कुंदन आर्यल कहते हैं कि इस संकट के चलते गुणवत्तापूर्ण रिपोर्टिंग में गिरावट आई है और सार्वजनिक हितों पर ध्यान कम हो रहा है.

यही नहीं, सैकड़ों सक्रिय पत्रकारों को स्थानीय निकायों में प्रेस सलाहकार और जनसंपर्क अधिकारियों के रूप में नियुक्ति दी जा रही है. इससे यह संकट, यानी गुणवत्तापूर्ण रिपोर्टिंग और निष्पक्ष पत्रकारिता का संकट और बढ़ गया है.

फ्रीडम फोरम नेपाल के दहल कहते हैं, "कमजोर मीडिया परिदृश्य के साथ मीडिया में जनता का विश्वास भी कमजोर हो गया है. इसकी निगरानी करने वाली भूमिका भी कमजोर हो गई है. मीडिया में लोगों की जगह सिकुड़ गई है और इसने आखिरकार बड़े पैमाने पर लोकतांत्रिक शासन और लोकतंत्र को कमजोर कर दिया है.”

महिला पत्रकारों के अधिकारों के लिए समर्पित एक गैर-सरकारी संगठन संचारिका समुहा की अध्यक्ष बिमला तुमखेवा भी चेतावनी देती हैं, "नेपाली मुख्यधारा की मीडिया में महिलाओं और कमजोर समुदायों की आवाजों को पहले से ही कम प्रतिनिधित्व दिया गया था.” वह कहती हैं, "चूंकि पूरा मीडिया क्षेत्र आर्थिक संकट का सामना कर रहा है, इसलिए वे सामाजिक और समावेशन के मुद्दों की जगह मुख्य रूप से राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर ही ध्यान केंद्रित कर रहे हैं.”