दंगों के 34 साल बाद सजा से क्या इंसाफ हो गया
२१ नवम्बर २०१८सिख अंगरक्षकों के हाथों 31 अक्तूबर, 1984 को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या किये जाने के बाद दिल्ली और देश के दूसरे भागों में भड़की सिख-विरोधी हिंसा में हजारों बेगुनाह सिख मारे गए और अनगिनत घायल और घर से बेघर हो गए. न्याय मिलने में हुई इतनी देरी से भारत की राजनीति, पुलिस प्रशासन, जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली और अदालतों के कामकाज के बारे में सवालों का उठना लाजिमी है.
भारत में समय-समय पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगों का इतिहास अब लगभग डेढ़ शताब्दी पुराना हो चला है और इनमें लिप्त लोगों को सजा मिलने का रिकॉर्ड कोई बहुत उल्लेखनीय नहीं है. अक्सर किसी को भी सजा नहीं होती. लेकिन 1984 की सिख-विरोधी हिंसा सामान्य अर्थ में साम्प्रदायिक दंगों के दौरान होने वाली हिंसा नहीं थी. यह एक नियोजित हिंसा थी जिसमें दो समुदाय आमने-सामने नहीं थे. केवल एक समुदाय आक्रामक था और दूसरा समुदाय उसकी आक्रामकता का शिकार. यह हिंसा एक दिन नहीं, दो-तीन दिन चली और इस दौरान राज्य प्रशासन और पुलिस मूक दर्शक बनी रही जिसके कारण इन घटनाओं के पीछे सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी का हाथ होने के संदेह की पुष्टि हुई.
फिर कांग्रेस के कई बड़े स्थानीय नेता दंगाई भीड़ का नेतृत्व करते हुए भी देखे गए. कांग्रेस की संलिप्तता के बारे में संदेह तब और पक्का हुआ जब कई-कई जांच कमेटियां गठित होने के बावजूद ना तो ठीक से दोषियों की शिनाख्त ही हो पायी और न ही उन्हें सजा मिली. अदालतों में जिस धीमी गति से मकदमे चले, उनसे भारतीय न्यायप्रणाली की अक्षमता ही उजागर हुई. अब भी दोषियों को सजा मिलना इसलिए संभव हो पाया क्योंकि 2015 में इन मामलों की फिर से जांच करने के लिए एक विशेष जांच दल का गठन किया गया और उसकी रिपोर्ट के आधार पर चले मुकदमे में सजा दी गयी. यानी पहले की जांच अधिकांशतः लीपापोती ही थी.
उत्तर प्रदेश में मेरठ के पास हाशिमपुरा में अर्धसैनिक बलों के हाथों नियोजित ढंग से मुसलमानों की हत्या किये जाने की घटना को उजागर करने वाले प्रसिद्ध पुलिस अधिकारी और साहित्यकार विभूतिनारायण राय का कहना है कि यदि सरकार और पुलिस-प्रशासन ना चाहे तो कोई भी सांप्रदायिक दंगा चौबीस घंटे से अधिक समय तक नहीं चल सकता. हालांकि इसी के साथ यह हकीकत भी जुड़ी है कि अधिकांश दंगों के पीछे निहित राजनीतिक स्वार्थ और सुनियोजित साजिश होती है. उनकी जांच के लिए गठित समितियां और आयोग भी विवरणात्मक रिपोर्ट पेश करते हैं और उनके पीछे की शक्तियों की ओर इशारा करते हैं, लेकिन हिंसा में शामिल दोषियों को सजा दिलवाने की कोशिश नहीं की जाती.
इस संदर्भ में 2002 में गुजरात में व्यापक पैमाने पर हुई मुस्लिम-विरोधी हिंसा की मिसाल पेश की जा सकती है. सोलह साल बीत जाने के बाद भी ना तो हिंसा के लिए जिम्मेदार राजनीतिक नेताओं, ना निष्क्रिय बने रहे पुलिस अधिकरियों और ना ही हिंसा में लिप्त दोषियों के खिलाफ कोई खास कार्रवाई की जा सकी है. तत्कालीन नरेंद्र मोदी सरकार में मंत्री माया कोडनानी को सजा हुई लेकिन अब वह भी जमानत पर रिहा हो चुकी हैं. अक्सर दोषियों के पक्ष में जनसमर्थन जुटाने की कोशिशें भी की जाती हैं जिनके कारण उन अधिकारियों का मनोबल गिरता है जो ईमानदारी से काम करना चाहते हैं.
सांप्रदायिक हिंसा के शिकार लोगों के परिवारों के जख्म आसानी से नहीं भरते. वे अक्सर नासूर बन जाते हैं. इंसाफ नहीं मिलने के कारण हताश, दुखी और क्रुद्ध लोग कई बार बदला लेने की गरज से खुद हिंसा और आतंकवाद का रास्ता चुन लेते हैं. इसलिए अगर समाज के ताने-बाने को बिखरने से बचाना है, तो नागरिक समाज और राज्य और उसके पूरे तंत्र को सांप्रदायिक हिंसा की समस्या के प्रति गंभीर और ईमानदार रुख अपनाना होगा. वरना इक्का-दुक्का दोषियों को सजाएं मिलने से कोई खास फर्क पड़ने वाला नहीं है.