श्रीलंका के हालात को देख चीन से दूरी बना रहा नेपाल
२८ मई २०२२नेपाल ने वैश्विक बुनियादी ढांचा परियोजना, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) को हिमालयी देश में विस्तार देने के लिए पांच साल पहले चीन के साथ समझौता किया था. दोनों देशों ने मई 2017 में नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल के नेतृत्व में बीआरआई पर समझौता हुआ था. दहल को "चीनी समर्थक" माओवादी नेता माना जाता था. वे करीब एक दशक लंबे चले सशस्त्र विद्रोह के बाद हुए संघर्ष विराम की घोषणा के बाद मुख्यधारा की राजनीति में शामिल हुए थे.
उस समय नेपाल ने इस समझौते की सराहना की थी और कहा था कि नेपाल-चीन संबंधों के लिए यह एक महत्वपूर्ण क्षण है. साथ ही, यह भी कहा गया था कि इससे देश में चीनी निवेश बढ़ने की उम्मीद है. अब इस महत्वाकांक्षी समझौते को पांच साल बीत चुके हैं, लेकिन नेपाल में धरातल पर कोई भी बीआरआई परियोजना दिखाई नहीं देती.
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2019 की शुरुआत में, नेपाल ने बीआरआई के तहत नौ अलग-अलग परियोजनाओं को आगे बढ़ाने का प्रस्ताव रखा गया था. इसमें जिलॉन्ग/केरुंग से काठमांडू को जोड़ने वाली ट्रांस-हिमालयी रेलवे लाइन, 400 केवी की बिजली ट्रांसमिशन लाइन का विस्तार, नेपाल में तकनीकी विश्वविद्यालय की स्थापना, नई सड़कों, सुरंगों, और पनबिजली परियोजनाओं का निर्माण शामिल था.
बीआरआई परियोजनाओं में तेजी लाने के लिए, चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अक्टूबर 2019 में काठमांडू का दौरा किया था. हालांकि, बीआरआई समझौते पर हस्ताक्षर को पांच साल बीत चुके हैं, लेकिन एक भी परियोजना पूरी नहीं हुई है.
अप्रैल में, नेपाल में चीनी राजदूत होउ यान्की ने चीन की सरकारी मीडिया ग्लोबल टाइम्स अखबार को बताया था कि नेपाल बीआरआई के सबसे महत्वपूर्ण स्तंभों में से एक है. कोरोना वायरस महामारी और नेपाल के राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव के कारण "व्यावहारिक सहयोग की गति" धीमी होने के बावजूद परियोजनाएं अभी भी पटरी पर हैं.
नाम ना छापने की शर्त पर नेपाल के विदेश मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया कि चीन और नेपाल की सरकारें बीआरआई परियोजना को लागू करने की योजना पर काम कर रही हैं. अधिकारी ने बताया कि एक बार उस योजना को अंतिम रूप देने के बाद, आर्थिक मामलों का समाधान किया जाएगा. इसके बाद, परियोजनाओं को शुरू करने का रास्ता खुल जाएगा.
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मार्च में चीनी विदेश मंत्री वांग यी की काठमांडू यात्रा के दौरान योजना को अंतिम रूप दिए जाने की उम्मीद थी. हालांकि, इसे अंतिम रूप नहीं दिया जा सका, क्योंकि नेपाल ने कई तरह की चिंताएं जाहिर की. साथ ही, बातचीत के लिए और समय मांगा.
वित्तपोषण और पारदर्शिता को लेकर चिंता
नेपाल के इस वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, नेपाल की सरकार ने चीन के सामने तीन चिंताएं व्यक्त की हैं. सबसे पहले, नेपाल कारोबारी कर्ज की जगह चीन से अनुदान और सॉफ्ट लोन चाहता है. दूसरी बात यह कि ब्याज दर और कर्ज चुकाने का समय विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक जैसी एजेंसियों के मुताबिक हो. तीसरा, नेपाल का कहना है कि बीआरआई परियोजनाओं के लिए अलग-अलग कंपनियों को बोली लगाने के मौके मिलने चाहिए.
बीआरआई परियोजनाओं के लिए चीन के नेतृत्व वाले एशियन इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट बैंक (एआईआईबी) और सिल्क रोड फंड (एसआरएफ) के जरिए कामर्शियल शर्तों पर कर्ज दिए जाते हैं. इसे चुकाने की समयसीमा कम होती है. इस वजह से यह आशंका बढ़ रही है कि परियोजना के लिए जगह की मंजूरी में देरी और देश की राजनीतिक अस्थिरता के कारण नेपाल में मेगा परियोजनाएं शुरू नहीं हो सकती हैं. अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया, "विवाद का मुख्य कारण इसके वित्तीय तौर-तरीके और पारदर्शिता से जुड़ा मुद्दा है.”
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चीन पर ‘कर्ज के जाल' में फंसाने का आरोप
नेपाल-चीन मामलों पर रिसर्च कर रही प्रमिला देवकोटा ने डीडब्ल्यू को बताया कि श्रीलंका का आर्थिक संकट भी नेपाली अधिकारियों के लिए चीनी वित्तपोषण को धीमा करने का एक कारण बन गया. श्रीलंका के हंबनटोटा बंदरगाह का निर्माण भी चीन के पैसे से हुआ था. यह कर्ज 6 फीसदी के कॉमर्शियल रेट पर मिला था.
कर्ज चुकाने में असमर्थ होने पर, श्रीलंकाई सरकार ने बंदरगाह के संचालन का जिम्मा चीन को सौंप दिया. इसके बाद, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चीन के ऊपर दूसरे देशों को ‘कर्ज के जाल' में फंसाने का आरोप लगा. अब, पाकिस्तान और मलेशिया सहित कई देशों ने बीआरआई समझौते की शर्तों की अधिक बारीकी से समीक्षा शुरू कर दी है.
भू-राजनीतिक विश्लेषक सी.डी. भट्ट के मुताबिक, श्रीलंका में बने आर्थिक संकट के हालात और नेपाल का अपने दक्षिणी पड़ोसी देश भारत के प्रति सामाजिक-संरचनात्मक झुकाव, दोनों की वजह से नेपाल में बीआरआई की परियोजनाएं अधर में लटक गई हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "2017 में, चीन के लिए परिस्थितियां काफी अनुकूल थीं. कई देश बीआरआई समझौते में दिलचस्पी दिखा रहे थे. नेपाल का नेतृत्व भी दो-तिहाई बहुमत वाली वामपंथी सरकार कर रही थी. हालांकि, अब परिस्थितियां बदल चुकी हैं और चीन नेपाल में कहीं नहीं है.”
इस साल फरवरी में, नेपाल ने 50 करोड़ डॉलर का अमेरिकी मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशनअनुदान स्वीकार किया है. हालांकि, इस अनुदान को लेकर काफी विवाद भी हुआ है. अनुदान में मिली राशि की मदद से, नेपाल के महत्वपूर्ण सड़क नेटवर्क और बिजली नेटवर्क को बेहतर बनाना है. इसके कुछ हफ्तों बाद ही अमेरिका ने नेपाली अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के लिए 65.9 करोड़ डॉलर की और सहायता दी. भट्ट कहते हैं, "अब समय आ गया है कि चीन दक्षिण एशिया से जुड़ी अपनी नीति पर फिर से विचार करे.”