भारत की जेलों में इतनी भीड़ क्यों है?
१२ मार्च २०२२भारत की जेलों में बढ़ती भीड़ को देखते हुए, आलोचक न्यायिक प्रक्रिया में नए सुधारों की मांग कर रहे हैं, ताकि मुकदमों को निपटाने में लगने वाले समय को कम किया जा सके. साथ ही, जेल में रहने वाले कैदियों की संख्या भी घटे.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने हाल ही में ‘जेल सांख्यिकी भारत 2020' रिपोर्ट जारी की है. एनसीआरबी के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, भारत की जेलों में बंद हर चार में से तीन कैदी ऐसे हैं जिन्हें विचाराधीन कैदी के तौर पर जाना जाता है. दूसरे शब्दों में कहें, तो इन कैदियों के ऊपर जो आरोप लगे हैं उनकी सुनवाई अदालत में चल रही है. अभी तक इनके ऊपर लगे आरोप सही साबित नहीं हुए हैं.
रिपोर्ट में यह जानकारी भी दी गई है कि देश के जिला जेलों में औसतन 136 फीसदी की दर से कैदी रह रहे है. इसका मतलब यह है कि 100 कैदियों के रहने की जगह पर 136 कैदी रह रहे हैं. फिलहाल, भारत के 410 जिला जेलों में 4,88,500 से ज्यादा कैदी बंद हैं.
मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था एमनेस्टी इंटरनेशनल ने कहा कि भारत में विचाराधीन कैदियों की संख्या ‘दुनिया भर के अन्य लोकतांत्रिक देशों की तुलना में काफी ज्यादा है.' 2017 तक, जेल में बंद सबसे ज्यादा विचाराधीन कैदियों के मामले में भारत एशिया में तीसरे नंबर पर था.
जेलों में बढ़ती भीड़
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2019 के मुकाबले 2020 में दोषी कैदियों की संख्या में 22 फीसदी की कमी देखी गई है, लेकिन विचाराधीन कैदियों की संख्या बढ़ी है. वहीं, दिसंबर में कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव (सीएचआरआई) के एक अध्ययन से पता चला है कि पिछले दो वर्षों में जेल में रहने वालों की संख्या में 23 फीसदी की वृद्धि हुई है. कोरोना महामारी के दौरान नौ लाख से अधिक लोगों को गिरफ्तार किया गया. नतीजा ये हुआ कि जेल में रह रहे कैदियों की औसत दर 115 फीसदी से बढ़कर 133 फीसदी हो गई.
सीएचआरई के जेल सुधार कार्यक्रम की प्रमुख मधुरिमा धानुका ने डॉयचे वेले को बताया, "जेल में बंद कैदियों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है. पिछले पांच वर्षों में, मुकदमे के नतीजे के इंतजार में जेल में बिताया जाने वाला उनका समय भी बढ़ गया है. जेलों में बढ़ती भीड़भाड़ कम करने के लिए तत्काल कारगर उपाय लागू करने की आवश्यकता है.” 2020 में, जेल में बंद कैदियों में 20 हजार से ज्यादा महिलाएं थीं जिनमें से 1,427 महिलाओं के साथ उनके बच्चे भी थे.
वर्ष 2020 में कोरोना महामारी की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन लगने की घोषणा के बाद, देश की सर्वोच्च अदालत ने जेलों की भीड़ को कम करने के लिए हर राज्य में समितियों का गठन करने का निर्देश दिया था. हालांकि, उस समय कई कैदियों को अस्थायी रूप से रिहा किया गया और एक साल के भीतर उन्हें फिर से जेल में बंद कर दिया गया.
विशेषज्ञों का कहना है कि अदालतों को जमानत की प्रक्रिया को आसान बनाने के नए मानदंड निर्धारित करने के लिए विशेष कदम उठाना चाहिए, खासकर उन मामलों में जहां मुकदमे लंबे समय तक चलते हैं और आरोपी वर्षों से जेल में है.
ट्रायल के समय को घटाने की मांग
इतिहासकार और फिल्म निर्माता उमा चक्रबर्ती कहती हैं, "हमारे पास ऐसा कोई तंत्र या संस्था नहीं है जिसके जरिए कैदियों की बात सुनी जाए. तकनीकी तौर पर, जेल में बंद कैदी इस बात के हकदार हैं कि उन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कानूनों के मुताबिक सम्मान और अधिकार मिले. हालांकि, मेरा मानना है कि भारतीय संविधान के तहत मिले अधिकार जेलों के दरवाजों तक ही सीमित रह जाते हैं.”
आंकड़े यह भी बताते हैं कि भारतीय जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों में से 70 फीसदी से अधिक कैदी हाशिए पर मौजूद वर्ग, जाति, धर्म और लिंग से हैं. दिल्ली और जम्मू-कश्मीर के इलाके में सबसे ज्यादा विचाराधीन कैदियों की संख्या है. इसके बाद बिहार, पंजाब, ओडिशा और महाराष्ट्र का स्थान है. इनमें से कई राज्यों की जेलों की ऑक्युपेंसी दर 100 फीसदी से अधिक है.
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ लॉ एंड गवर्नेंस की एसोसिएट प्रोफेसर प्रतीक्षा बक्षी ने जेल से जुड़े सुधार कार्यक्रमों पर काम किया है. वह कहती हैं कि 2020 में हिरासत में होने वाली मौतों की दर में 7 फीसदी की वृद्धि हुई है.
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कोर्ट को आदेश देने की जरूरत
बक्षी ने कहा कि तथाकथित अप्राकृतिक मौतों में 18 फीसदी से अधिक की वृद्धि हुई है. इनमें आत्महत्याएं, दुर्घटनाएं और जेलों में होने वाली हत्याएं शामिल हैं. 2020 में 56 कैदियों की मौत क्यों हुई, इस बारे में कोई जानकारी नहीं है. ये आंकड़े साबित करते हैं कि लॉकडाउन के दौरान लागू किए गए नियम से जेलों में हिंसा और बीमारी में वृद्धि हुई.
वह आगे कहती हैं, "अब समय आ गया है कि सरकार और अदालतें विचाराधीन कैदियों के स्वास्थ्य और उनके लिंग के आधार पर संवेदनशील दृष्टिकोण अपनाए. हिरासत में होने वाली मौतों और अन्य घटनाओं को लेकर जेल निरीक्षकों की जवाबदेही तय की जानी चाहिए.”
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कई लोगों ने सर्वोच्च न्यायालय से आग्रह किया है कि कैदियों को नियमित जमानत पर रिहा करने के उपायों की तलाश की जाए और उन्हें लागू किया जाए, ताकि जेल की भीड़भाड़ को कम किया जा सके. सीएचआरआई की धानुका ने कहा, "अदालत को उन मामलों और अपीलों को प्राथमिकता देने के लिए भी निर्देश जारी करना चाहिए जहां आरोपी जेल में बंद है. जरूरी होने पर मुकदमों की सुनवाई हर दिन होनी चाहिए, ताकि जिन मामलों में पांच साल से अधिक समय से मुकदमा चल रहा है वे जल्द से जल्द समाप्त हो जाएं.”
पिछले एक साल में, अदालतों ने कैदियों की कई याचिकाओं पर सुनवाई की है. इनमें कई याचिकाएं इलाज कराने के लिए अस्पताल में भर्ती कराने से इनकार, पत्रों की जब्ती, घर के खाने की मांग, परिवार के लोगों से मिलने की मांग से जुड़ी हुई थी.
एक्टिविस्टों के मुताबिक, जेलों में भीड़ बढ़ने की एक वजह लिंग से भी जुड़ी हुई है जिसकी अक्सर अनदेखी की जाती है, खासकर जब यह मामला जमानत, पैरोल, फरलो और नजरबंदी से संबंधित होता है. नारीवादी शोधकर्ता नवशरण सिंह कहती हैं, "कैदियों की कुल संख्या में महिलाएं पांच फीसदी से भी कम हैं. हम यह मानते हैं कि इन महिला और लैंगिक तौर पर अल्पसंख्यक विचाराधीन कैदियों से समाज को कोई गंभीर खतरा नहीं है. मुकदमे के नतीजे आने तक उन्हें हिरासत में नहीं रखने का विकल्प भी चुना जा सकता है.”
अधिकारियों ने पहले भी स्वीकार किया है कि जेलों में भीड़भाड़ एक समस्या है. हालांकि, उनका कहना है कि विचाराधीन कैदियों को जेल से रिहा करने के लिए ‘व्यवस्थागत परिवर्तन' की जरूरत होगी. गृह मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी ने डीडब्ल्यू को बताया, "यह फैसला शीर्ष राजनीतिक स्तर पर लिया जाना है. राज्य सरकारों को भी जेल की आबादी की समीक्षा करनी होगी और जेल की भीड़भाड़ के मुद्दे से प्रभावी ढंग से निपटना होगा.”