भारत में न्यायपालिका बनाम विधायिका
८ फ़रवरी २०११भारत में एक के बाद एक घोटाले सामने आ रहे हैं और इसकी वजह से सरकार पर भी दबाव बढ़ता जा रहा है. उसे हर मामले में जवाब देना पड़ रहा है. यह इस बात का संकेत है कि सरकार का सबसे ताकतवर होने की छवि का अंत हो सकता है और इसके साथ प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की गद्दी भी डोल गई है. इससे भारतीय संविधान के मुताबिक लोकतंत्र के तीन स्तंभों न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका में से दो में सीधा टकराव हो गया है.
पर नौ फीसदी की विकास दर से भाग रहे भारत को इससे बड़ा झटका भी लग सकता है और आने वाले दिनों में निवेश में भारी कमी देखी जा सकती है.
सुप्रीम कोर्ट की ताकत
पिछले साल मई में एचएस कपाड़िया भारत के चीफ जस्टिस बने. इसके बाद तीन बड़े घोटाले सामने आए, जिसमें हाल के दिनों का सबसे बड़ा टेलीकॉम घोटाला भी शामिल है. इसकी वजह से प्रधानमंत्री की ईमानदार छवि पर सवाल उठे और उन्हें सुप्रीम कोर्ट के परेशान कर देने वाले सवालों का सामना करना पड़ा. कॉमनवेल्थ घोटाले की वजह से भी भारत की छवि धूमिल हुई और सरकार पर दबाव भी बढ़ा.
भारत एशिया की तीसरी सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति है और लगभग नौ फीसदी की दर से विकास कर रही है. लेकिन घोटालों के बाद नए निवेश के पहले काफी सोचा समझा जाएगा, जिससे इसके निवेश में कमी हो सकती है और इससे भारत के विकास दर पर भी प्रभाव पड़ सकता है.
टेलीकॉम घोटाले को उजागर करने में बड़ी भूमिका निभाने वाले सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण का कहना है, "निश्चित तौर पर अदालत की भूमिका में बड़ा बदलाव आया है और चीफ जस्टिस ने पद की गरिमा को शानदार तरीके से पेश किया है."
उनका कहना है, "कोर्ट की ऐसी भूमिका पहले भी रही है. लेकिन भ्रष्टाचार जब हद से बढ़ जाता है और लोगों में असंतुष्टि हद पार कर जाती है, तब इस अदालत की महत्ता भी बढ़ जाती है."
राजनीति या देश
भारत के कुछ राज्यों में इस साल चुनाव होने हैं और अदालत की बढ़ती भूमिका के मद्देनजर सरकार घोटालों और भ्रष्टाचार के मामलों से निपटने में कोताही नहीं बरतना चाहेगी. भारत के बड़े अधिकारी और नेता लाखों करोड़ों डॉलर के समझौतों पर जो दनादन दस्तखत कर रहे थे, उनमें भी ब्रेक लग सकता है. हर समझौते के दौरान दिमाग में कहीं न कहीं भ्रष्टाचार और घोटाले का खतरा होगा, जो भारत में निवेश कम कर सकता है.
इंडियन एक्सप्रेस के सुनील जैन ने लिखा है, "हम उम्मीद कर सकते हैं कि नेता और नौकरशाह अब ज्यादा सुरक्षित तरीके अपनाएंगे. वे ऐसे फैसले कतई नहीं करना चाहेंगे, जिन पर बाद में सवाल उठाए जा सकते हैं. इससे निवेश की दिशा में जो तेजी आई है, उसमें कमी दिखेगी."
पिछले साल जब 176 अरब रुपये के टेलीकॉम घोटाले की खबर आई, तो ज्यादातर लोगों ने यही सोचा होगा कि दूसरे घोटालों की तरह यह भी कुछ दिनों बाद रद्दी के डिब्बे में डाल दिया जाएगा और सरकारी अधिकारी बरसों में अपनी रिपोर्ट पेश करेंगे.
लेकिन अदालती दखल की वजह से जांच में तेजी बनी रही और सरकार इस दौरान कुछ खास नहीं कर पाई. इस वजह से मुद्दा मीडिया और आम लोगों में जिन्दा रहा और सच तो यह है कि इसकी वजह से ही विपक्ष भी मजबूत होकर उभरा है.
तीन बड़े मामले
अदालत के सख्त रवैये की वजह से टेलीकॉम घोटाले में तेजी से जांच हुई और यहां तक कि पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए राजा को पहले इस्तीफा देना पड़ा और अब वह सीबीआई की हिरासत में हैं. कैग की रिपोर्ट के मुताबिक यह घोटाला 176 अरब रुपयों का है.
दूसरा मामला भारत के सीवीसी पीजे थॉमस का है. थॉमस करोड़ों रुपये के पामोलिन घोटाले में आरोपी हैं, उसके बावजूद उन्हें इतना अहम पद दिया गया. विपक्ष ने इस मुद्दे को खूब जोर शोर से उछाला और अब उसकी कोशिश रंग लाती दिख रही है.
तीसरा मामला कॉमनवेल्थ गेम्स से जुड़ा है, जिसमें भारत में खेल के स्वयंभू मुखिया सुरेश कलमाड़ी बुरी तरह फंस गए हैं. चूंकि वह भी सत्ताधारी कांग्रेस से नाता रखते हैं, लिहाजा सरकार भी बुरी फंसी है.
यूं तो पारदर्शी अदालत से देश के कानून व्यवस्था की अच्छी छवि बन सकती है, जो विदेशी कारोबार के लिए अच्छा हो सकता है. लेकिन भारत में अदालत और सरकार के बीच छत्तीस का आंकड़ा बनता जा रहा है, जो विदेशी निवेशकों को दूर कर सकता है.
भारत में अच्छा खासा पैसा लगाने वाले एक विदेशी निवेशक का कहना है, "जिस मंत्री के साथ मैं बात कर रहा हूं, उन्होंने डील को लटका दिया है. उनको डर है कि कहीं यह मामला भ्रष्टाचार के पेंच में न फंस जाए."
भारत में इससे विदेशी निवेश को नुकसान पहुंचेगा. तीन साल पहले भारत में कुल निवेश का लगभग तीन प्रतिशत विदेशी निवेश हुआ करता था, जो अब घट कर पौने दो प्रतिशत के आस पास पहुंच गया है.
कपाड़िया की काबलियत
जस्टिस कपाड़िया ने ऐसे वक्त में चीफ जस्टिस का पदभार संभाला है, जब उनसे पहले भारत के प्रमुख न्यायाधीशों पर आरोप लगे हैं कि उन्होंने भ्रष्टाचार के मामलों में संजीदगी नहीं दिखाई. इंडियन एक्सप्रेस ने रिपोर्ट दी है कि एक बार तो जस्टिस कपाड़िया ने महत्वपूर्ण कांफ्रेंस में इसलिए हिस्सा नहीं लिया क्योंकि वह काम के दिन पर रखी गई थी.
सुप्रीम कोर्ट के वकील गौरव भाटिया का कहना है, "अदालत बहुत से कदम उठा रही है. नए चीफ जस्टिस को इनमें से कई के लिए श्रेय दिया जा सकता है."
पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने सीधे तौर पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को फटकार लगाई कि उन्होंने टेलीकॉम घोटाले और ए राजा के मामले में ज्यादा कुछ नहीं किया. इसके बाद प्रधानमंत्री ने भी कह दिया कि अदालत को सरकार के दूसरे तंत्रों में ज्यादा हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. भारतीय संविधान में लोकतंत्र की परिभाषा में तीन प्रमुख अंगों का जिक्र है. ये हैं विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका.
राजनीतिक समीक्षक महेश रंगराजन का कहना है, "मैं समझता हूं कि यह प्रधानमंत्री के लिए कांटा साबित हो सकता है. वह अपनी छवि को लेकर बेहद संवेदनशील हैं और अदालत की इस तरह की टिप्पणी उन्हें भेद सकती है."
जस्टिस कपाड़िया के साथ अच्छी बात यह है कि सिर्फ वही नहीं खुल कर सामने आ रहे हैं, बल्कि वह दूसरे जजों को भी बोलने का मौका दे रहे हैं. वकील प्रशांत भूषण का मानना है कि इससे नए अध्याय खुल सकते हैं और भारत के कई और घोटाले सामने आ सकते हैं. भारत में उद्योगों के लिए दी जाने वाली जमीन पर भी सवाल उठते हैं, पर इस मामले में ज्यादा कुछ नहीं हो पाया है.
हालांकि अभी यह साफ नहीं हो पाया है कि जिन मुद्दों पर जांच चल रही है वह कहां तक जाएंगे. पुराने बड़े मुद्दे कभी भी अंजाम तक नहीं पहुंचे और इसमें 1989 का बोफोर्स घोटाला एक बड़ा मिसाल है.
रिपोर्टः एलिस्टेयर स्क्रूटन (रॉयटर्स)/ए जमाल
संपादनः ए कुमार